एक विफल देश की राजनीतिक बिसात

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बीते दशक में जनयुद्ध की समाप्ति के बाद पिछले कई वर्षो से नेपाल में कोई स्थिर सरकार नहीं बन पायी है और संविधान सभा के गठन का मामला लगातार लटकता रहा है. इस बीच नेपाल के तमाम राजनीतिक दलों के बीच एक सर्वदलीय सरकार गठित करने की कवायद चल रही है. हालांकि, इस अभियान को कहां तक सफलता मिल पायेगी, इसके बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता. इन कोशिशों के बीच कैसे हैं नेपाल के हालात, इसी पर नजर डाल रहा है नॉलेज.
अंतरराष्ट्रीय बिरादरी और नेपाल की जनता से एक गलती हुई है. एक निश्चित अवधि के भीतर सरकार बना लेने की शर्त पर नेपाल में चुनाव होना चाहिए था.  सरकार नहीं बनानेवाले राजनीतिक दलों को अगले दो टर्म तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाये जाने जैसी शर्त के साथ यहां की जनता मतदान करती, तो कदाचित इस देश में लोकतंत्र की इतनी दुर्गति नहीं होती. चुनाव हुए तकरीबन ढाई महीने हो चुके, लेकिन सरकार का गठन अब भी अढ़ाई कोस दूर है. सरकार कब बनेगी और कितने दिन चलेगी? संविधान निर्माण के नाम पर इस देश की जनता को क्या इस बार फिर ‘बाबाजी का ठुल्लू’ हासिल होगा? ये सारे सवाल सड़क पर हैं. नेता फाइव स्टार होटलों, दूतावासों और आलीशान कोठियों में ‘छल-फल’ (नेपाली भाषा में बातचीत) करने में व्यस्त हैं.
सरकार बनाने की मुश्किलें
चूंकि अभी नेपाल में नया संविधान बनना है, इसलिए निर्वाचित संसद का नाम ‘संविधान सभा’ (सीए) रखा गया है. संसद की क्षमता 601 सदस्यों की है, जिसमें चुन कर जानेवाले सदस्यों की संख्या 575 है. 19 नवंबर, 2013 को किये गये मतदान में ‘सीए’ के 571 सदस्य चुने गये हैं. निर्वाचन में नेपाली कांग्रेस को संसद की 196 सीटें प्राप्त हुई हैं. सरकार बनाने के लिए नेपाली कांग्रेस को कम से कम 286 सांसद चाहिए. दूसरे स्थान पर आ चुकी नेकपा एमाले को 175 सीटें हासिल हुई हैं, तीसरे नंबर पर प्रचंड की एनेकपा ‘माओवादी’ को 80 सीटें और चौथे स्थान पर राजा समर्थक कमल थापा की राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी को 24 सीटें प्राप्त हुई हैं.  बाकी की 96 सीटों पर 26 अन्य पार्टियों के नेता समेत दो निर्दलीय जीत कर संविधान सभा में पहुंचे हैं.
नेपाली कांग्रेस के नेता सुशील कोइराला चाह कर भी 22-24 पार्टियों को मिला कर सरकार नहीं बना सकते थे. तराई की पार्टियों की अपनी शर्ते थीं. 14 सांसदों वाला मधेसी जनाधिकार फोरम नेपाल (लोकतांत्रिक), 13 सीटों वाली राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी, दस सांसदों वाला मधेसी जनाधिकार फोरम नेपाल, 11 सीटों वाली तराई मधेस लोकतांत्रिक पार्टी, छह सीटों पर जीती सदभावना पार्टी के नेताओं की शर्ते मानना प्रधानमंत्री पद के दावेदार सुशील कोइराला के लिए कठिन हो रहा है. इस बीच तराई के नेता भी तरह-तरह के बयान देते रहे कि वे सरकार में शामिल न होकर संविधान निर्माण में सहयोग करेंगे. माओवादी नेता प्रचंड ने भी ऐलान कर दिया कि हमें विपक्ष में बैठना मंजूर है.
नेकपा एमाले की शर्ते
इस समय सरकार बनाने के लिए जिस दल की ओर से शतरंज की बिसात बिछी है, वह है नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत माओवादी-लेनिनवादी), संक्षेप में नेकपा ‘एमाले’. दरअसल, नेकपा ‘एमाले’ राष्ट्रपति पद पर अपने किसी व्यक्ति को बैठाना चाहती है. नेकपा ‘एमाले’ खुद भी गुटबाजी से ग्रस्त है. संसदीय दल के नेता झलनाथ खनाल बनें या केपी शर्मा ओली, इसे लेकर उठापटक चल रही है. नेकपा ‘एमाले’ में एक गुट ओली और वाम देव गौतम का है, जिसमें विद्या भंडारी, ईश्वर पोखरेल, शंकर पोखरेल, विष्णु पौडेल शामिल हैं, तो दूसरा ‘खनाल-माधव नेपाल गुट’ है, जिसमें भरत मोहन अधिकारी, सिद्धिलाल सिंह, युबराज ज्ञावाली और सुरेंद्र पांडे हैं.
राष्ट्रपति को लेकर रार
23 जुलाई, 2008 से नेपाली कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व स्वास्थ्य मंत्री राम वरण यादव राष्ट्रपति के पद को सुशोभित कर रहे हैं. नेपाली मुद्रा में मात्र 19,410 रुपये माहवारी (भारतीय मुद्रा में तकरीबन 12 हजार रुपये) वेतन पा रहे राष्ट्रपति राम वरण यादव को पांच साल तक इस पद को संभाले रखने की जिम्मेदारी दी गयी थी.  राज महल ‘शीतल निवास’, जो नेपाल का राष्ट्रपति भवन है, में कब तक उन्हें रहना है? संविधान का संरक्षक राष्ट्रपति राजनीतिक दलों से अपने भविष्य के बारे में सवाल पूछ कर विचित्र स्थिति पैदा कर चुका है.
दरअसल, नेपाल के प्रथम राष्ट्रपति महामहिम राम वरण यादव इस कुर्सी के मोह में इतने बंध गये कि भूल चुके हैं कि नेपाल में सरकार के गठन में देरी के कई कारणों में से एक वे स्वयं भी हैं.  नेपाली कांग्रेस यह चाहती है कि जब तक देश का संविधान नहीं बन जाता, राष्ट्रपति की कुर्सी पर राम वरण यादव बने रहें. नेपाली कांग्रेस केंद्रीय समिति के सदस्य मिनेंद्र रिजाल कहते हैं कि चार-छह दिनों में समस्या का हल निकल आयेगा और हमें उम्मीद है कि 11 फरवरी से पहले नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बन जायेगी. दूसरी ओर नेकपा एमाले के नेता भीम आचार्य ने कहा कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और संसद अध्यक्ष के पदों को लेकर जब तक स्थिति साफ नहीं हो जाती, सरकार का गठन कठिन है.
पांच साल में नहीं बना संविधान
पिछला संविधान सभा चुनाव 10 अप्रैल, 2008 को हुआ था. नेता लोग दो साल के लिए गठित संसद की अवधि को तीन साल तक खिसका ले गये. दिलचस्प यह है कि पांच वर्षो की रस्साकशी में राजनीतिक दल, संविधान निर्माण के लिए एकमत नहीं हो सके. वर्ष 2008 में राजशाही समाप्त होने के बाद लोकशाही से एक आम नेपाली को यही उम्मीद थी कि देश में जल्द ही नया संविधान बनेगा और नेपाल का नव निर्माण होगा. लेकिन छह वर्षो में नेपाल ने सिर्फ खोया है. जो पाया है, उसे नहीं के बराबर ही कहा जा सकता है. संविधान के प्रारूप पर बातचीत के लिए 11 बार समितियां बनीं, लेकिन संसद में एक बार भी पूरा सदन इस पर चरचा  के लिए एकत्रित नहीं हुआ.
बीते चार साल में पांच प्रधानमंत्री आये और गये, लेकिन जिस बात के लिए पहली संविधान सभा का गठन किया था, वह वहीं का वहीं है.  27 मई, 2012 को प्रथम संविधान सभा भंग करने की घोषणा की गयी, उसके बावजूद माओवादी नेता बाबूराम भट्टराई 13 मार्च, 2013 तक सरकार चलाते रहे.  अंतत: यह तय हुआ कि सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश खिल राज रेग्मी की अध्यक्षता में आम चुनाव कराये जायें. 14 मार्च, 2013 को मुख्य न्यायाधीश खिल राज रेग्मी को कार्यकारी प्रधानमंत्री बनाया गया.
पांच साल में हुआ क्या?
प्रश्न यह है कि 2008 से लेकर 2013 तक नेपाल में हुआ क्या? नेपाल में प्रचंड के नेतृत्व में सत्तारूढ़ एकीकृत नेकपा माओवादी पार्टी से अलग होकर कामरेड मोहन किरण वैद्य ने ‘नेकपा-माओवादी’ का निर्माण कर लिया. तराई में ‘एक मधेश-एक प्रदेश’ का नारा देनेवाले दो दल 2008 के चुनाव में थे. पांच वर्षो में दर्जन भर दल तराई में उग आये, लेकिन तराई की समस्या वहीं की वहीं है. नेपाली कांग्रेस भी अविश्वास, वर्चस्व की लड़ाई और भितरघात से चुनाव बाद भी मुक्त नहीं हुई. कुछ महत्वाकांक्षी नेता नहीं चाहते थे कि सुशील कोइराला प्रधानमंत्री बनें. जोड़-तोड़ से बननेवाली सरकार को ‘अलोकतांत्रिक’ बताते हुए नेपाली कांग्रेस के वरिष्ठ नेता देवेंद्र लाल नेपाली सर्वोच्च अदालत में याचिका दायर कर चुके हैं. देवेंद्र कहते हैं कि पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र ही देश का उद्धार कर सकते हैं. इस समय प्रधान न्यायाधीश खिल राज रेग्मी कार्यकारी प्रधानमंत्री बनकर राज काज संभाल रहे हैं. ऐसा पहली बार हुआ कि न्यायपालिका की पहल पर नेपाल में चुनाव हुआ हो.
‘किरण का बाइकाट’ फुस्स
शुरू-शुरू में ‘नेकपा-माओवादी’ नेता मोहन वैद्य किरण ने 33 पार्टियों को भरोसे में लेकर चुनाव बहिष्कार का ऐलान किया. उन्होंने तर्क दिया कि न्यायाधीश खिल राज रेग्मी की कार्यकारी सरकार की देखरेख में चुनाव नहीं होना चाहिए. क्योंकि न्यायाधीश रेग्मी दो संवैधानिक पदों को एक साथ संभाल रहे हैं. खिल राज रेग्मी 6 मई, 2011 से नेपाल सर्वोच्च अदालत के प्रधान न्यायाधीश के पद पर विराजमान हैं. खैर, थोड़े समय बाद कामरेड किरण ने यह हवा देनी शुरू की कि विदेशी शक्तियां, खासकर भारत और अमेरिका नेपाल में चुनाव करा रही हैं. नेकपा-माओवादी नेता मोहन वैद्य किरण भारत विरोध के जुनून से इतने ग्रस्त हो गये कि उन्होंने धमकी, हड़ताल और हिंसा का सहारा लिया. लेकिन इन सब के आगे नेपाल के वोटर नहीं झुके.
रोल्पा, डोल्पा, पांचथर, ताप्लेजुंग जैसे दुर्गम पहाड़ ले लेकर झापा, मोरंग, इलाम तक के तराई वाले माओवादी गढ़ में मोहन वैद्य किरण के आह्वान को वोटरों ने नहीं सुना, बल्कि मतदान करनेवाले उमड़ पड़े. बाकी दलों के नेता भी चुनाव बहिष्कार से बाहर निकल आये. चुनाव में कुल तीस पार्टियों और निर्दलीयों को विजय हासिल हुई. 19 नवंबर, 2013 के मतदान में 78.34 प्रतिशत वोटरों ने हिस्सा लिया. जबकि 1991 के आम चुनाव में 68.15 प्रतिशत नेपाली मतदाताओं ने भाग लिया था. ‘नेकपा-माओवादी’ नेता मोहन वैद्य किरण अब ढीले पड़ गये हैं. कामरेड किरण ने ताजा बयान दिया है कि सभी पार्टियां सम्मेलन बुलायें और राष्ट्रीय समस्या का समाधान करें. सोमवार को मोहन वैद्य किरण ने कहा कि नव निर्वाचित सांसद संविधान बनाने के काबिल नहीं हैं. मोहन वैद्य किरण ने दावा किया कि एनेकपा ‘माओवादी’ नेता प्रचंड मेरी राय से सहमत हैं.
पुराना संविधान, नया संविधान
नेपाल में सरकार का कामकाज 15 जनवरी, 2007 के अंतरिम संविधान के आधार पर चल रहा है. 1990 में नेपाल का जो संविधान बना था, उसे खारिज कर 2007 का अंतरिम संविधान लागू कर दिया गया था. ‘माइरेस्ट नेपाल’ के आंकड़ों के अनुसार, 2007 से 2010 तक नेपाल में संविधान बनाने की प्रकिया में 13 अरब, 19 करोड़ रुपये बहाये जा चुके थे. कुछ विेषकों का दावा सही लगता है कि नेपाल का संविधान विश्व का सबसे महंगा संविधान साबित होगा. नौ नवंबर, 1990 को तत्कालीन राजा वीरेंद्र वीर विक्रम शाह देव के समय नेपाल का संविधान बनाया गया था. नेपाल का पहला संविधान 1948 में राणा शासक पद्म शमशेर ने बनाया था. इसे विफल होने के बाद 1951 में अंतरिम कानून लागू किया गया. 1959 में पहले आम चुनाव के दौरान संविधान में बदलाव किया गया. फिर राजा महेंद्र ने नेपाल में आपातकाल लगाने से लेकर असीमित शक्तियां अपने हाथों में ले लीं. फिर 1962 के संविधान में पार्टी विहीन ‘पंचायती व्यवस्था’ को महल ने लागू किया, जिसके आधार पर राजा को विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को नियंत्रित करने का अधिकार दिया गया. नेपाल के राजा को सभी राजनीतिक दलों को प्रतिबंधित करने और सार्वभौम शक्तियां अपने पास रखने का अधिकार दिया गया. 1962 का संविधान नेपाल का सबसे विवादास्पद संविधान माना गया, जो राजा को निरंकुश बनाता था.
बरबाद अर्थव्यवस्था
नेपाल पर तंज करनेवाले अकसर कहते रहे, ‘जस्तो राजा-तस्तो प्रजा’ (जैसा राजा वैसी प्रजा). नेपाल में राजशाही तो कब की समाप्त हो गयी, लेकिन जो राजनेता देश की कमान संभाल रहे हैं, उनकी मौज है. बरबाद हुई तो देश की जनता. किसी जमाने में अर्थशास्त्री अनुमान लगाते थे कि ब्राजील के बाद नेपाल, दूसरे नंबर पर विश्व में जल विद्युत पैदा करनेवाला देश बन सकता है. लेकिन राजनीतिक अस्थिरता ने इस देश की सारी संभावनाओं और उसके मुस्तकबिल को बरबाद कर दिया.
दिसंबर, 2012 में राष्ट्रपति राम वरण यादव भारत आये थे, ताकि उनके देश को 40 से 55 मेगावाट अतिरिक्त बिजली मिल सके. नेपाल के बड़े शहरों में 18 घंटे की ‘पावर कट’ आम बात है. राजधानी में 14 घंटे ही बिजली मिल पा रही है. गांव में तो कई दिनों के बाद इसके दर्शन होते हैं. यह सब कुछ 1996 से 2006 तक के जनयुद्ध का नतीजा है, जब माओवादियों ने जगह-जगह पावर प्लांट के काम को रोक दिया था. कई बड़े प्लांट तो उन्होंने बम से उड़ा दिये. माओवादियों ने जो बोया था, उसे नेपाल की जनता आज काट रही है. 2011 में नेपाल में 950 मेगावाट बिजली की जरूरत आन पड़ी थी, लेकिन वहां की परियोजनाओं से मात्र 705 मेगावाट बिजली की आपूर्ति हो पायी, बाकी बिजली भारत से मिल पायी थी.
नेपाल में हर साल 10 प्रतिशत की दर से बिजली की मांग बढ़ रही है. बिजली नहीं, तो विकास नहीं. एशियन विकास बैंक (एडीबी) ने 15 जुलाई, 2013  तक नेपाल में सकल घरेलू उत्पाद दर (जीडीपी) 3.6 प्रतिशत बताया था. इसके लिए ‘एडीबी’ ने नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता को जिम्मेदार बताया था. साल-दर-साल नेपाल गरीबी के दलदल में धंसता जा रहा है. भ्रष्टाचार, महंगाई, हड़ताल, अपराध से नेपाल की आम जनता कराह रही है, लेकिन संविधान बनाने के नाम पर होने वाला तमाशा थम नहीं रहा है. दुनिया में तीन देश हैं, जहां लिखित संविधान नहीं है. ये हैं ब्रिटेन, इजराइल और न्यूजीलैंड. क्या नेपाल दुनिया का चौथा देश नहीं बन सकता, जहां लिखित संविधान न हो?
।। पुष्परंजन।।
(इयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक)